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आधुनिकता की चकाचौंध को दरकिनार कर पौराणिक मान्यताओं के साथ आयोजित होता है नाग देवताओं का मेला।

“आधुनिकता की चकाचौंध” में मादक पदार्थों का प्रचलन दिनों-दिन बढ़ते जा रहा है। जिस वजह से आज के दौर में हमारे देवी-देवताओं के पौराणिक मेले-थौलों में भी मांस-मदिरा का प्रचलन खूब चल रहा है।

लेकिन उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी जनपद की “रवांई घाटी” में नाग देवताओं के मेले में आज भी इन चीजों का सेवन पूर्णतः वर्जित है।

11 गांवों के ईष्ट अधिपति दो भाई भौंशर व पौंशर नाग देवता अपने भक्तों को वर्षभर में एक बार श्रावण माह की मकर संक्रांति से दर्शन व आशीर्वाद देने और अपने 11 गावों के कुशल-क्षेम हेतु पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भ्रमण करेंगे।

नाग देवताओं के मेले की सबसे खास विशेषता: यह देव डोलियां वर्ष में एक बार श्रावण माह में अपने गर्भ-गृह से बाहर निकलती हैं। जिसमेें 20 गते आषाढ से नाग देवताओं को बाध्ययंत्रो की थाप पर जगाया जाता है और तभी देवता के मुल थान पौन्टी व मोल्डा में देवता की हरियाली डाली दी जाती है। जिसके बाद पूरे थोक में मांस-मदिरा पूर्णतः प्रतिबन्धित हो जाता है।

नाग देवता के इन मेले-थौलों में किसी भी गांव में मेहमानों को सात्विक भोज दूध, दही, घी के साथ परोसा जाता है।

मान्यता ही नहीं बल्कि बहुत से उदाहरण इन मेलों के आज भी जीवित हैं। यदि इन दिनों गांव के किसी परिवार में मांस-मदिरा लाया/परोसा या उसका सेवन/भक्षण किया जाता है, तो उन्हें वर्षभर अनेकों कष्टों से जुझना पड़ा है।

क्षेत्र भ्रमण के बाद 11 गते श्रावण को नाग देवता अपने मुल थान मोल्डा में दूध-धरेज के साथ अपनी शाही पूजा-अर्चना के साथ पुनः वर्षभर के लिए अपने गर्भ-गृह में विराजमान हो जाते हैं।

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