
उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में आज भी लाखों लोग बेसिक सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सड़कें बदहाल हैं, सरकारी बसों की सेवाएँ दयनीय हैं, स्वास्थ्य सुविधाएँ सिर्फ कागजों में हैं, और शिक्षा व्यवस्था ढांचागत समस्याओं से ग्रस्त है। लेकिन क्या कभी ऐसा दिन आएगा जब राज्य के प्रशासनिक अधिकारी, जनप्रतिनिधि और नीति-निर्माता अपनी आरामदायक गाड़ियों, एसी दफ्तरों और लग्जरी फैसिलिटी को छोड़कर आम जनता की तरह जिंदगी जीने का प्रयास करेंगे?
सरकारी बसों में यात्रा करें अधिकारी, तब समझ आएगी आम जनता की परेशानी
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में परिवहन व्यवस्था किसी चुनौती से कम नहीं है। घंटों बसों का इंतजार, ओवरलोडिंग, खराब सड़कें और जर्जर होती बसें—यह आम जनता के लिए रोजमर्रा की समस्याएँ हैं। अगर कभी उत्तराखंड परिवहन विभाग के अधिकारी खुद एक आम नागरिक की तरह बस में सफर करें, तो उन्हें पता चलेगा कि कैसे यात्रियों को असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। क्या कभी कोई मंत्री या उच्च अधिकारी बिना किसी विशेष सुविधा के, सामान्य किराया देकर बस यात्रा करेगा?
स्वास्थ्य सेवाएँ: दूर-दराज के इलाकों में जमीनी हकीकत देखेंगे कब अधिकारी?
राज्य के दूरस्थ गाँवों में सरकारी अस्पतालों की हालत बद से बदतर है। कहीं डॉक्टर नहीं हैं, कहीं दवाइयाँ उपलब्ध नहीं होतीं, तो कहीं मरीजों को घंटों इंतजार करना पड़ता है। क्या कभी कोई स्वास्थ्य विभाग का अधिकारी बिना किसी सूचना के किसी ग्रामीण अस्पताल में जाकर वहाँ की व्यवस्था को देखेगा? क्या कोई मंत्री आम मरीज बनकर सरकारी अस्पताल में इलाज करवाने की हिम्मत करेगा? अगर ऐसा हुआ तो असली हालात सामने आएंगे और जरूरी सुधार भी हो सकते हैं।
शिक्षा व्यवस्था: क्या कोई मंत्री अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाएगा?
शिक्षा विभाग हर साल सरकारी स्कूलों की बेहतरी के दावे करता है, लेकिन हकीकत कुछ और है। शिक्षकों की कमी, टूटी-फूटी इमारतें, संसाधनों का अभाव, और डिजिटल शिक्षा के नाम पर केवल घोषणाएँ—यही उत्तराखंड के कई स्कूलों की वास्तविकता है। सवाल उठता है, क्या कोई मंत्री या अधिकारी अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों में पढ़ाने को तैयार होगा? अगर हाँ, तो शिक्षा व्यवस्था में बदलाव निश्चित है।
बैंकों और सरकारी दफ्तरों की हालत देखेंगे कब अधिकारी?
उत्तराखंड के गाँवों में बैंकों और सरकारी दफ्तरों की हालत किसी से छिपी नहीं है। बैंकों में लंबी कतारें, लोन योजनाओं की जटिल प्रक्रियाएँ, सरकारी दफ्तरों में फाइलों का अंबार और धीमी गति से काम करना – यह आम आदमी के लिए सिरदर्द बन चुका है। यदि कोई अधिकारी आम नागरिक की तरह बैंक जाकर घंटों लाइन में खड़ा हो, या सरकारी दफ्तर में बिना पहचान बताए काम करवाने जाए, तो शायद उन्हें पता चलेगा कि सिस्टम में कितना सुधार करने की जरूरत है।
जनकल्याणकारी योजनाएँ: फाइलों से बाहर निकलें अधिकारी और जमीनी हकीकत देखें
सरकार कई योजनाएँ बनाती है – गरीबों के लिए राशन योजना, किसान सब्सिडी, स्वरोजगार योजनाएँ, पेंशन योजनाएँ आदि। लेकिन क्या ये योजनाएँ सही लोगों तक पहुँच रही हैं? क्या अधिकारी कभी किसी गाँव में जाकर खुद जांच करेंगे कि जो लाभार्थी लिस्ट में नामित हैं, उन्हें वास्तव में लाभ मिल रहा है या नहीं? अगर कोई अधिकारी आम नागरिक की तरह इन योजनाओं के लिए आवेदन करके खुद इस प्रक्रिया को अनुभव करे, तो उसे समझ आएगा कि आम जनता को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
क्या कभी होगी जमीनी हकीकत की पड़ताल?
उत्तराखंड में विकास के दावे खूब किए जाते हैं, लेकिन वास्तविक सुधार तभी होगा जब उच्च अधिकारी और नेता आम जनता की तरह जीवन व्यतीत कर इन व्यवस्थाओं को परखें। क्या हमारे प्रशासनिक अधिकारी और जनप्रतिनिधि कभी अपनी विशेष सुविधाएँ त्यागकर जनता की तरह जिएंगे? क्या वे कभी सड़कों पर चलेंगे, सरकारी बसों में सफर करेंगे, आम मरीज की तरह इलाज करवाएंगे, सरकारी स्कूलों में जाकर बच्चों के साथ बैठेंगे, और बैंकों में आम आदमी की तरह लाइन में खड़े होंगे?
अगर हाँ, तो उत्तराखंड की व्यवस्थाओं में सुधार की एक नई शुरुआत होगी। अगर नहीं, तो जनता सिर्फ घोषणाएँ सुनती रहेगी और बदलाव का इंतजार करती रहेगी।
पहाड़ सन्देश न्यूज नेटवर्क द्वारा यह लेख किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं बल्कि, अपने पाठकों /दर्शकों के लिए यह सब लिखने का तात्पर्य, यह है की हमें सोचना होगा की हमारे प्रदेश की आज जमीनी हकीकत क्या है और हमें व हमारे अधिकारियोंं, जनप्रतिनिधियों व सरकारों को कीस दिशा में प्रयास करने की जरूरत है।
पहाड़ संदेश जनहित में बेहतर काम कर रहा है, हमारी आपको हार्दिक बधाई, आप सदैव जनहित के मुद्दों से शासन–प्रशासन को अवगत कराने का कार्य कर रहे हो।